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Wednesday, January 31, 2018

लोग कह रहे हैं प्रेम का महीना आ गया हैं। सुबह कुछ निराली सी हैं आज ,पूर्ण चंद्र खिला था भोर तक ,अब सूरज चमकीली किरणों संग नृत्य कर रहा हैं। पुरे खिले ग़ुलाब गुच्छ की खुशबु के संग खुशियाँ मानो जीवन में शामिल होने के लिए उतावली सी हो रही हैं। लोग कह रहे हैं वसंत आ गया हैं। पर मेरे मन का वसंत , वो तो कही गया ही नहीं था ! मन की इस धरती पर प्रेम का कोई एक माह कहाँ हैं ? समय की अनंत धारा में प्रेम अविरत बहती नदियाँ सा सतत बहता जा रहा हैं , उसे सागर का पता नहीं ,पर मन का मन में विलय युगो पहले ही हुआ था शायद ,अब इस मास ,ज्यादा जोरो से धड़कता मेरा ह्रदय तुम्हारे युगपुरुष के मान से टकरा कर तुम्हारे ह्रदय में लीन हुआ जा रहा हैं। तुम और मैं जिस धरती पर बसते हैं वहां ग्रीष्म की धुप कहाँ ,वहां शीत की ठिठुरन कहाँ ? वहां तो मात्र ऋतु वसंत का सौंदर्य हैं। वहां कभी खग्रास मेरे मन चंद्र को ग्रसता नहीं ,वहां चंद्र -सूर्य अपने पूर्ण रूप में ,एक साथ ,एक ही दिशा ,एक ही समय खिले रहते हैं ,तुम्हारे सूर्य सम रूप को और मेरे नैन चंद्र को ज्योतिर्मान करते रहते हैं।सृजक हो तुम !जाने - अनजाने -चाहे -अनचाहे निरंतर सृजन कर रहे हो ,तुम्हे काल का भान कहाँ ? तुम्हारे सृजन को मर्यादा कहाँ ? समय की गति तो मात्र इस मनुष्य रूप को छलती हैं। तुमने कभी कहा नहीं की तुम राजा हो और मैं दासी। पर मैं ही स्वयं को तुम्हारे चरणों में बैठा देखती रही। तुम्हारे चरणों से अनुपम संसार में कुछ और हो ही नहीं जैसे। मेरा सारा ध्यान ,मेरी सारी इच्छाएं ,मेरा व्यर्थ अभिमान ,मेरा झूठा मान सब का सब इन चरणों में विलय पाता हो जैसे। हठी बहुत हूँ मैं , पर वो मेरा अधिकार हैं।
मेरा हठ और तुम्हारा मेरे हर हठ को प्रेम कह देना। मेरा वो बिन कारण क्रोध करना और मेरी ज्वालामुखीसम हृदयाग्नि को तुम्हारा अपनी एक निश्चल मुस्कान से गंगाजल सा शीतल कर देना। मेरा तुम्हारे प्यार को हर भौतिक सुख से जोड़ कर तौलना -नापना और तुम्हारा एक पल में अपने ह्रदय से लगाकर मेरे माप -तौल के मानदंडों को मसल कर रख देना।
प्रेम की इस कथा में तुम कभी हारे नहीं और मैं कभी जीती नहीं। तुम अनंत तुम्हारा प्रेम अनंत ! मैं सिमित मेरा अहंकार भी सिमित ,तुम्हारे प्रेम के समक्ष उसका कोई वजूद ही नहीं। वास्तविकता की धरती पर वसंत माह साल में एक बार आता हैं ,प्रेम एक बार होता हैं , रिश्ता कभी-कभार ही जुड़ता हैं ,पर मेरे - तुम्हारे भावविश्व में प्रेम हर घडी , हर प्रहर ,हर मास ,हर जुग बस एक दूजे के लिए खिलता ही रहता हैं। मेरे तुम्हारे प्रेम का आदि-अंत कहाँ ? उसकी कोई उम्र कहाँ ,वो तो हर क्षण कोटि -कोटि नए प्रेमक्षणों की रचना करता रहता हैं।
प्रेम करना भी तो तुमसे ही सीखा मैंने। बालपन से यौवन तक अपने प्रेम को कितने नए नाम दिए मैंने ,मैत्री के ,संबंधो के ,नातों के , भावों के। पर तुम्हारा मेरा नाता एक नाम में ठहर ही नहीं पाया ,एक रिश्ते की सीमा में बैठ ही नहीं पाया ! वो कभी बचपन का रिश्ता रहा ,कभी भाई -बहन के प्रेम का ,कभी दोस्ती -यारी का ,कभी मन के मीत का ,कभी भक्त और भगवान का। नाम बनते गए ,रिश्ते बिगड़ते रहे पर प्रेम जस का तस बना रहा। हमारे रिश्ते में मैं कई सारी कालरात्रि ले आयी , अपने मद में डोलती मैं ,तुम्हे संसार की कसौटियों पर घिसती चली आयी ,पर तुम पर मेरी किसी भी व्यग्रता -कुटिलता -भावहीनता का कोई असर ही न पड़ा हो जैसे ! तुम उसी अनुराग के साथ मुझे अनवरत देखते रहे ,उसी सहृदयता के साथ मेरे मन को स्पर्श देते रहे ,उसी कारुण्य भाव के साथ मेरे मन में हिलोरे लेते रहे। मैंने बहुत कोशिशे की तुमसे रूठ के बैठ जाने की ,तुम्हे स्वयं से कोसो दूर धकेलने की , अपनी हठवादिता से तुम्हे खो बैठने की। पर तुम मेरी ही बुद्धि में प्रकाश बन जगमगाते रहे ,मेरे ही अंतर् में प्रेम बन इठलाते रहे ,मेरे ही तन में संगीत बन गुनगुनाते रहे।
तुमने मेरे सम्पूर्ण अस्तित्व को अपने वश में कर लिया ! मेरे शरीर के ,आत्मन के हर कण पर अधिकार प्राप्त कर लिया। मेरा मन मेरा नहीं ,हर पल तुम्हारा ध्यान करता रहा ,मेरा मस्तिष्क मेरे अनुसार नहीं ,तुम्हारे अनुसरण में काम करने लगा , मेरा शरीर तुम्हारी अनुपम देह के बस में अपने देहभान भूल तुम होता गया।

ये कैसी प्रीत हैं कृष्ण ! ये कैसा प्रेम हैं विजेता ! मुझे हराकर तुमने मुझे प्राप्त कर लिया और मैं अभिमानिनी होकर भी इस हार को पहन मानिनी बन सुखी होती गयी।
सच कहूँ मुझे कोई रस नहीं तुम्हारी बनायीं इस धरती और धरती पर बसते क्षणिक प्रेम में। यहाँ प्रेम सिर्फ शब्द हैं ,नाम हैं ,उम्र हैं। मेरा मान आसक्त हैं उस प्रेम में जो राग ,अनुराग ,भ्रान्ति से ऊपर चिरस्थायी शांति हो ,जो एक युग का जाया ,दूजे युग में नश्वर हो गया ऐसा न होकेआदि अंत से परे ,काल से ऊपर ,सतत -अनवरत -निरंतर हो। जो प्रेम मेरा और मात्र तुम्हारा हो।
जरा ठहरो मन के स्वामी ! मैंने अभी तक मुक्ति नहीं पायी ,मानव देह के तीन गुण अभी मेरे रक्त में बह रहे हैं ,मुझसे बचके जाओगे कहाँ प्रिय ? मेरा क्रोध , मेरी हठवादिता ,मेरा सरल सा भाव यह सब अभी तुम्हारे लिए शेष हैं। उम्र के कई साल शेष हैं मेरे ,कई सारी शिकायते ,हठे ,मनमुटाव शेष हैं। आखिर यही तो मेरे और तुम्हारे प्रेम का सौंदर्य हैं मेरे वसंत ! यही तो राधिका -कृष्ण के प्रेम का सत्य ! द्वापर में राधिका सरला थी ,इस युग विचित्र ,द्वापर में तुम्हारी हठ विजयी हुई थी ,इस युग मेरी ,द्वापर में मुक्त कर दिया था मैंने ,ये कलयुग हैं अब किसी युग तुम्हे मुक्ति नहीं।

मैं खत्म होकर भी शेष रही हूँ कृष्ण ,आगे भी मैं ही शेष रहूंगी तुममे।
तुम्हारी हठीली,मानिनी,गौरविणी
राधिका

इस संसार के लिए
राधिका वीणासाधिका

एक प्रेम की पाती तुम्हारे नाम
©️डॉ राधिका वीणासाधिका













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