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Friday, August 6, 2010

खोये खोये से रिश्ते ...........

मुंबई के वाशी इलाके का रघुलिला मॉल ..शाम के आठ  का समय .चम चम चमचमाती लाइट्स ,धूम धूम धमाकेदार संगीत और खरीददारी करते ,हँसते मुस्कुराते ,गाते ,बर्गर पिज्जा खाते लोग .मुंबई की शाम ....
हर शाम कुछ ऐसी ही ...और ऐसी ही एक शाम में मॉल के एक्सलेटर के पास तीसरी मंजिल पर खड़ा एक रोता हुआ छोटा बच्चा .एक बेसुरी आवाज कानो में गूंज रही हैं ,बिन तेरे बिन तेरे बिन तेरे  कोई .............आने जाने वाले सब उस बेसुरी आवाज की तारीफों के पुल बांध रहे हैं ,कुछ नौजवान ताल दे रहे हैं .पर सीढ़ियोंके पास खड़ा रोते उस दो ढाई साल के बच्चे का व्यथित सुर किसको नहीं सुनाई  दे रहा ,न वहाँ से गुजरते लोगो को न उस बच्चे की माँ को ................
शायद उनकी आँखे भी मॉल की चकाचौंध से अन्धियाँ गयी हैं जो उनके वो बच्चा दिख कर भी नहीं दिख रहा .

  कहते हैं न कलाकार भावुक होते हैं ,वहाँ से गुजरती एक ऐसी ही कलाकार जो रिश्ते में मेरी बहन लगती हैं को वह बच्चा दिखाई दिया  उसने बहुत कोशिश करती हैं की वह बच्चा अपना और अपने माता पिता का नाम ही बता दे ,पर वो अभी ठीक से बोल भी नहीं सकता ,उसे लेकर वह बिग बाज़ार के कस्टमर काउन्टर पर गयी ताकि यह घोषणा करवा सके की किसीका बच्चा खो गया हैं ,लेकिन अपनी चीजों की  लिस्ट और फ्री के ऑफर्स बताने में व्यस्त वहाँ के अधिकारीयों को यह बात बहुत ही तुच्छ जन पड़ती हैं .हार कर मेरी बहन मॉल के सुरक्षा अधिकारीयों के पास गयी  ,इंसानियत की मृत्यु शायद इसे ही कहते हैं जब वो अधिकारी यह कह देते हैं की "यह हमारा काम नहीं हैं ".बड़े प्रयत्नों के बाद मेरी बहन को एक जिम्मेदार पुलिस अधिकारी मिलता हैं जिसके पास वह उस बच्चे को सुपुर्द कर सके .

मुंबई आकर मैंने बहुत सी बाते सीखी और जानी है.लोकल की भाग दौड़ ,समय की बहुत कमी ,मॉल संस्कृति में ढलते लोग ,छम छम छम छ्मछ्माती जोरदार बारिश,पुरे दिन काम करके एक समय का खाना बमुश्किल जुटा पाते लोग ,बेसिर पैर बढती महंगाई ,बड़े बड़े हॉस्पिटल ,उससे भी बड़े अपार्टमेंट्स .........................



इतनी सारी बातों में एक बात और मैंने देखी हैं और सबसे ज्यादा महसूस की हैं ,वह हैं रिश्तो का नाममात्र शेष .जबसे यहाँ आई हूँ एक बात  मन में बार बार चुभती हैं की लोगो से भरी मुंबई नगरी में किसीको अपना नहीं मिलता   कभी कभार मॉल में मिल लेना ,अपने बारे में अत्यंत सिमित जानकारी देना ,सिमित ही जानकारी पाना.जिसे यहाँ के लोग सभ्यता की निशानी मानते हैं ,अच्छी बात हैं की किसीके व्यक्तिगत मामलो में दखल न दिया जाये.पर यहाँ बरसो बीत जाते हैं एक ही अपार्टमेन्ट में सटे हुए घरो में रहते हुए,लेकिन  पडोसी का नाम तक पता नहीं होता.

पता नहीं कैसी जिंदगी हैं  ये .और न जाने कैसी संस्कृति.इसे संस्कृति भी कहाँ जाना चाहिए या नहीं?हम इंसान हैं .कलाकार ,उच्चाधिकारी आदि आदि, सब बाद में .पर पहले हम मानव हैं ,मानवीयता के नाते ही सही एक दुसरे का ख्याल करना ,चाहना ,समय देना भी अगर मुश्किल हैं  तो क्या कहा जाये?

आप ही सोचिये अगर वह बच्चा तीसरी मंजिल पर बनी उन लोहे की सीढियों पर से गिर जाता तो क्या होता ?वहाँ खड़े कुछ इंसान दर्द से भर जाते ,कुछ चुपचाप वहाँ से निकल जाते.हाँ न्यूज़ चेनलो की चाँदी हो जाती उन्हें एक और गरमागरम न्यूज़ मिल जाती .
ज्यदा क्या कहूँ ...बस  यह सब देखकर अच्छा नहीं लगता .
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