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Sunday, February 28, 2010

पात्र बदल गए हैं ,नाटक तो वहीँ हैं .


सुबह का समय,मैं बादल की किसी टुकड़े पर सवार पूरी दुनिया देख रही हूँ ,सुबह सुबह मेरे घर के चारो तरफ कोहरा छाया रहता हैं,इतना कोहरा की आसपास के घर भी ठीक से नज़र नहीं आते.लगता हैं मेरा घर किसी परी की  कहानी की तरह बादलो के बीच बना हुआ हैं.ठीक नानी की परी की कहानी जैसे ,वहाँ होता था एक राजा एक रानी और एक राजकुमारी.उस राजकुमारी का महल भी तो यूँही आसमान में एक बादल पर होता था .आसमान में देखा कुछ रंग बिखरे हुए थे ,रंग ...............................

राधिका ..................................अचानक माँ की आवाज आई .चल अता खूब झाल होली खेलन  (चलो अब बहुत होली खेलली ).
होली का पहला दिन ,भारतीय संस्कृति में बुरे पर अच्छाई की जीत का एक और दिन .शाम के यहीं कुछ ८-८:३० का समय .होलिका जल रही हैं और हम बच्चे उसके पास नाच रहे हैं .धुलहंडी  कल  हैं पर आज  रंग हमारी मुठ्ठियों में बंद रह ही नहीं रह पा रहे .माँ आज तो सिर्फ गुलाल ही खेलेंगे न!  खेलने दो न! वहाँ होली जल रही हैं ,माँ और आस पास की काकू ,आत्या ,आजी मिल कर उसकी पूजा कर रही हैं .हम उत्साह से दुने हो रही हैं .

बाबा ...........बाबा आज नहीं न बजाओ सितार ,चलो न रंग(color) लायेंगे.बाबा मुझे खूब सारा नीला रंग खरीदना हैं ,नहीं बाबा ताई को कुछ नहीं लेकर दोगे तुम ,ताई मुझे हरा रंग चाहिए ,ये बहुत अपनी अपनी चलाती  हैं .बाबा में सबसे छोटी हूँ मेरी पसंद का कलर नहीं लाया तो मैं कुट्टी ,मुझे ओरेंज रंग खरीदना हैं ,बस .बाबा ,चलो न चलो न बाज़ार जायेंगे .ऐ आई बाबा ला म्हण न ,वो फिर से सितार बजने में लग गए . बाबा हमेशा लाल रंग खरीद लाते .कहते बहुत पक्का रंग हैं छूटेगा ही नहीं . 


मुझे याद हैं बाबा को चुटकी भर रंग लगाने के लिए भी उनको मानना पड़ता था ,और हम पर होली का भुत सवार रहता था .
किरण आंटी दरवाजा खोलो न ...............हमेशा की तरह हम बच्चो की टोली उनके दरवाजे पर और उनका दरवाजा होली के दिन बंद .फिर आपस मैं हम बच्चो की  कुछ महान चर्चा ,मिशन आंटी को रंगना .और इस मिशन की लीडर मैं . आंटी देखो सब बच्चे गए . मैं हूँ राधिका ,कोई नहीं हैं अब .आंटी आई ने तुम्हारे लिए करंजी ,मठरी भेजी हैं .दरवाजा खोलो न .सच राधिका ??सच बोल रही हैं तू .तुझे पता हैं मुझे होली नहीं अच्छी लगाती .खर म्हणते आंटी .बिचारी आंटी वो क्या जाने उन्हें फसाया जा रहा हैं ,दरवाजे के खुलने के साथ ही  आंटी पर रंगों की बौछार .....................होली हैं ............लाल काला ,गुलाबी  जिसके हाथ में जो रंग वह सारा आंटी के सुंदर चेहरे पर ,पास खड़े अंकल जोरजोर से हंस रहे हैं .हम बच्चे मिशन नेक्स्ट पर............

मुझे याद नहीं होली की पहली रात मैं कभी भी सोयी हूँ.आई कहती अरे सोजा ,कल  होली खेलनी हैं न .पर मैं पूरी पूरी रात जागकर सोचती रहती ,फलां काकू को कैसे रंगाया जाए ,फला के आई बाबा पर कैसे रंग डाला जाये .हम १०-१५ बच्चो की टोली .आई चिल्लाती रहती अरे घर नका घानेरड़ करू ,(घर मत गंदा करो ).ऐ अग़ राधिका .बघ मामा आलाऐ तेला नमस्कार कर .नमस्कार मामा ,मामा के चरणों में जैसे तैसे नमस्कार रखकर फिर भागे हम सब मिशन होली पर ............दोपहर के दो बज जाते,उस पर अगर बुआ और उनकी बेटियाँ आजाती तो फिर कहना ही क्या .घर की छत आँगन सब रंगमय हो चुके होते और बारी आती बुआ के घर की .

आईने में देखकर पता ही नहीं चल रहा था की हम तीनो में से कौन राधिका हैं कौन गीतिका और कौन याशिका.फिर शुरू होती चेहरा साफ करने की विधि ,दो दो घंटे कभी बेसन कभी तेल कभी क्रीम लगा लगा कर रगड़ रगड़ कर चेहरा साफ़ ,हद तो तब होती जब रंगों वाले हाथो से ही हम खाना भी खा लेते और आई की बनायीं हुई मठरी,करंजी,पपड़ी भी .

मम्मा ...............मम्मा ..........कलर कहाँ गए .....मुझे खेलना हैं न !तुम आज मत कम्प्यूटर पर लिखो और वीणा भी नहीं बजाना हैं न .चलो न होली खेलते हैं .इस एक आवाज से मैं बरसो आगे बढ़ आई .अरु न जाने क्या -  क्या कह रही हैं ,ये रंग वो रंग.मैं हतप्रभ सी उसे देख रही हूँ .समय कितना बदल गया हैं न .न जाने कितने साल बाद इस साल मैं होली खेलूंगी वह भी अपनी बेटी के साथ ,उसने तीन  पिचकारीयां  खरीदी हैं ,बिलकुल मेरी ही तरह उसे भी कल सारे बाज़ार में बिक रहे रंग खरीदने थी मजे की बात तो यह हैं मेरे पापा की तरह उसके पापा  को भी होली बिलकुल पसंद नहीं पर मैं बेफिक्र हूँ उन्हें रंगने के लिए आरोही जो हैं .

कितनी लम्बी हो गयी न ये पोस्ट ....बचपन की यादे होती ही कुछ ऐसी हैं.आप सभी को होली की बहुत सी शुभकामनाये .ईश्वर करे होली के रंग आपके जीवन को खुशियों के रंग से भर जाये .

Saturday, February 27, 2010

Sunday, February 21, 2010

1411 -"मिल जाये तो मिटटी हैं खो जाये तो सोना हैं"शाश्वत सत्य

 कितनी सुंदर सुबह थी वह . अजी नहीं !  मौसम बड़ा खुबसूरत नहीं था ,न तो ठंडी हवा चल रही थी, न रिमझिम बारिश हो रही थी.न वासंती फुल खिले थे ,न हल्की- हल्की धुप बादलो से झांककर मुस्कुरा रही थी .
 बड़ा ही खराब मौसम था ,चिलचिलाती धुप थी,भरी गर्मीयो का मौसम था सुबह के दस बजे नहीं तब तक जोरदार लू भी चलने लगी थी फिर भी वह सुबह कुछ खास थी ,कुछ अनोखी,कुछ निराली . कितने खुश थे हम उस सुबह . दो दिन पूर्व ही समाचार पत्र में आया था की जू (चिड़ियाघर) में नया बाघ आया हैं .पापा ने वादा किया था आज हम सब उसे देखने जायेंगे . इसलिए वह मई की बोर सुबह भी सुंदर बन गयी थी.



मुझे याद हैं जब भी बाघ को देखते आश्चर्य ,डर ,कौतुहल ,आनंद की भावनाए एक साथ मन में आती .
'बाबा............ कितना बड़ा हैं न यह बाघ  ....छि ....कैसे मांस  खा रहा हैं .कितनी ऊँची पहाड़ी जैसी बनायीं हैं इसके लिए ,निचे छोटा सी लेक ताकि वो हम तक आसानी से न पहुँच  सके .






वाह पापा! इसके बच्चे कितने सुंदर हैं ,मन करता हैं गोदी में लेकर खेले इनसे.कितने क्यूट ..........पापा यह मांस क्यों खाता हैं ?




पापा .....  उस वाले बाघ के लिए इतना सुंदर घर और इस बिचारे के लिए इतना गन्दा पिंजरा???छि .....कितनी गंदी बदबू हैं यहाँ ,पानी  भी कितना गंदा हो रहा हैं इसके पीने का .पापा... ये बाघ...    प्रश्न, प्रश्न, प्रश्न ...


कुछ १५ -२० दिन पहले ही पुणे के स्नेक पार्क में जाना हुआ.बाघ के लिए बड़ा पिंजरा था ,अंदर बाघ नहीं था .पर एक बड़ी सी पाटी  पिंजरे की जाली पर लगी थी ,लिखा था अब यहाँ कोई बाघ नहीं बचा ,बाघों की संख्या न के बराबर रह गयी हैं .वह ख़त्म हो रहे हैं .मैं धक् से रह गयी .सोचा था आरोही को बाघ दिखाउंगी फिर एक तस्वीर दिखा दी बाघ की . 


सिर्फ एक शतक पहले बाघों की आठ उप जातिया जीवित थी ,अब सिर्फ पाँच हैं .

अब मजे की बात हैं ,कभी हम चिल्लाते हैं सेव वाटर (सेव water),सेव पेट्रोल,सेव गर्ल चाइल्ड(Girl) ,सेव अर्थ(Earth) ,सेव ये सेव वो सेव ,सेव, सेव.  दुनिया की वह हालत कर दी हैं हमने की हम सब कुछ सिर्फ बचाने में लगे हैं .कभी कुछ संगीतकार कुछ वाद्य(instrument) बचाने में लगे हैं,तो जिन्हें पर्यावरण की समझ हैं वह पर्यावरण बचाने में ,जिन्हें संस्कृति(culture) से प्रेम हैं वह उसके संरक्षक बन रहे हैं .हर कोई दौड़ रहा हैं कोशिश कर रहा हैं कुछ बचाने की सँभालने की सहेजने की फिर से उसी पहले वाले रूप में उसे पहुँचाने  की .लेकिन कोशिश सिर्फ कोशिश ही रह जाती हैं ,और वह चीज़ खो जाती हैं ,फिर हम उसका विकल्प ढूंढते हैं ,दुखी होते हैं ,परेशान होते हैं ,ईश्वर से प्रार्थना करते हैं . पर हासिल शून्य ..................

हम कलाकार हैं ,विचारक हैं ,राजनेता हैं,डॉक्टर हैं ,कृषक हैं,बिल्डर हैं ,वैज्ञानिक हैं .हम ये हैं, वो हैं ,वोहैं, वो हैं .हम सब कुछ हैं .पहले हम राजा थे . फिर प्रजा हुए और अब आम आदमी .पर प्रश्न यह हैं की हम मनुष्य कब बनेंगे ?मनुष्य जो प्रकृति का एक हिस्सा हैं उतना ही स्वाभाविक और सरल सा हिस्सा जितने चिड़िया ,कौवे,बाघ व अन्य जीव जंतु और पशु पक्षी .हम कब समझेंगे की हमें भी इन सबकी ,सृष्टि से जुड़े हर तत्त्व की जरुरत हैं .अचानक से नींद खुली देखा अरे! ये अभी तो यही था अब कहीं नहीं हैं और लगे चिल्लाने ये बचाओ ,वो बचाओ .बचाओ- बचाओ -बचाओ .क्यों ?क्यों हम इस प्रकृति का मासूम सा हिस्सा बनकर उसी भाव से नहीं रह सकते जिस भाव से अन्य प्राणी  रहते हैं ,हम विशिष्ट हैं लेकिन अपने घर में विशिष्टता  ?? 


एक सत्य यह हैं की हमें मनुष्य बन कर रहना होगा जो प्रकृति प्रेमी हैं सृष्टि का एक अंग हैं ,हमें कोशिश करनी हैं ,जो खो रहा हैं उसे बचाने की ,सवारने की ,पुन: पाने की लेकिन मनुष्य बनकर ,जीवन के हर क्षेत्र में .नहीं तो हम कुछ कुछ बचायेंगे और बहुत कुछ खो जायेगा .फिर रोयेंगे,पछतायेंगे,तड़पेंगे.जब हम इस दुःख के भवर से बाहर निकलेंगे ,कुछ शांत हो जायेंगे तो कही से सुनाई देगा एक शाश्वत सत्य,"दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना हैं मिल जाये तो मिटटी हैं खो जाये तो सोना हैं"  .


इति  

वीणा साधिका 
डॉ.राधिका 
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